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स्वतंत्र भारत का पहला चुनाव हारे थे अम्बेडकर।

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घटना ऐसी ही है, जिसमें एक दूध बेचने वाले मामूली कारोबारी ने भारत के संविधान को तथाकथित आकार देने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर को चुनाव में हरा दिया था। कुछ लोगों का मानना है, यदि डॉ. आंबेडकर वह चुनाव जीत जाते तो देश में पिछड़ी जातियों, दलितों और अन्य तबकों की स्थितियां अलग होतीं।

वाकया सन्‌ 1952 का है। ये वो समय था जब भारत में संविधान लागू होने (सन्‌ 1950) के बाद पहली बार आम चुनाव हो रहे थे। देश में कांग्रेस ही सबसे बड़ी पार्टी थी और माना जा रहा था कि कांग्रेस ही जीतेगी। किंतु कुछ ऐसे बड़े स्वर थे जो कांग्रेस की नीतियों के विरोध में थे। इनमें सबसे बड़ा नाम था डॉ. भीमराव आंबेडकर। अनुसूचित जातियों के कद्‌दावर नेता डॉ. आंबेडकर ने बंबई (अब मुंबई) से चुनाव लड़ा था। उनके सामने कांग्रेस ने एक दूध का छोटा-मोटा कारोबार करने वाले नौसिखिए नेता काजरोलकर को चुनाव में उतारा।

यह वह वाकया था जब पहले चुनाव में आंबेडकर को दूध बेचने वाले ने हराया देश के पहले आम चुनाव में सबसे चौंकाने वाली हार तथाकथित दलित हितैसी कद्दावर नेता बीआर आंबेडकर की हुई थी। तब आंबेडकर अपनी पार्टी एससीएफ (आल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन) से उतरे थे। मशहूर मराठी पत्रकार पीके अत्रे ने उस वक्त का मशहूर नारा गढ़ा था।



“कुथे तो घटनाकर अंबेडकर आनी कुथे हा लोनिविक्या काजरोलकर।”

इसका मतलब था, “कहां संविधान के महान निर्माता आंबेडकर और कहां नौसिखिया मक्खन बेचने वाला काजरोलकर। उस चुनाव में कांग्रेस की हवा ऐसी थी कि लैंपपोस्ट को भी टिकट दे दिया होता तो वह भी जीत जाता। कांग्रेस की पकड़ और नेहरू के भाषणों के कारण काजरोलकर ने दिग्गज को हरा दिया।”

क्या रहा था हार जीत का अंतर

इस चुनाव में आंबेडकर 15 हजार वोट से हारे। काजरोलकर को 1,38,137 तथा आंबडेकर को 1,23,576 वोट, इसे तब की सबसे अप्रत्याशित हार मानी गयी।


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