9 मई / जन्मोत्सव विशेष। हूँ भूख मरूं‚ हूँ प्यास मरूं‚ मेवाड़ धरा आजाद रहै…हूँ घोर उजाड़ां मैं भटकूँ‚ पण मन में माँ री याद रह्वै..
क्या करें…ये मिट्टी ऐसी ही है…इसमें कई जगह अनाज की पैदावार भले ही कम होती होगी पर इस मिट्टी ने देश, सनातन धर्म के लिये, स्व अभिमान के लिये अंतिम क्षण तक लड़ने वाले शुर वीरों को जन्म देने में कभी कमी नहीं की…वीर शिरोमणि…एकलिंग महादेव के भक्त, महाराणा प्रताप आज ही के दिन 9 मई सन् 1540 को कुम्भलगढ़ किले में इस धरा पर अवतरित हुए थे…
उनके पास नाममात्र की पराधीनता स्वीकार करके शांति से शासन करने का विकल्प था, मगर पराधीनता की शांति की तुलना में महाराणा ने स्वाभिमान की अशांति का विकल्प चुना…वह…माँ भारती के तन पर स्वाभिमान का जेवर थे…मरते दम तक नहीं झूका वो सूर्यवंश का तेवर था..
जिस समय महाराणा प्रताप सिंह ने मेवाड़ की गद्दी संभाली, उस समय राजपुताना साम्राज्य बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था। बादशाह अकबर की क्रूरता के आगे राजपुताने के कई नरेशों ने अपने सर झुका लिए थे। कई वीर प्रतापी राज्यवंशों के उत्तराधिकारियों ने अपनी कुल मर्यादा का सम्मान भुलाकर मुगलिया वंश से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिए थे। कुछ स्वाभिमानी राजघरानों के साथ ही महाराणा प्रताप भी अपने पूर्वजों की मर्यादा की रक्षा हेतु अटल थे और इसलिए तुर्क, जिहादी बादशाह अकबर की आंखों में वे सदैव खटका करते थे..
मेवाड़ को बचाने के लिए आखिरी सांस तक लड़ने वाले महाराणा प्रताप ने छः बार अकबर को बादशाह मानकर मेवाड़ में राज चलाने की पेशकश ठुकराई। उन्हें किसी जिहादी का राज, उसकी गुलामी स्वीकार नहीं थी..महाराणा प्रताप का भाला 81 किलो वजन का था और उनके छाती का कवच 72 किलो का था उनके भाला, कवच, ढाल और साथ में दो तलवारों का वजन मिलाकर 208 किलो था, उन्होंने अपना सारा राज्य भगवान शिव के स्वरूप भगवान एकलिंग जी के चरणों में समर्पित कर रखा था और उनका दिवान बनकर ही राज्य किया….मरुभूमि आज भी अपने गीतों में गाती है….पूछती है…?
हल्दी घाटी में समर लड़यो, वो चेतक रो असवार कठे..?
मायड़ थारो वो पुत कठे..? वो एकलिंग दीवान कठे..?
वो मेवाड़ी सिरमौर कठे..? वो महाराणा प्रताप कठे..?
हल्दीघाटी का युद्ध मुगल बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप के बीच 18 जून, 1576 ई. को लड़ा गया था। यह युद्ध महाभारत युद्ध की तरह विनाशकारी सिद्ध हुआ था। महाराणा की तरह ही उनका प्रिय अश्व “चेतक” भी बहुत बहादुर था..वह भी हिंदुओं के इतिहास की अमूल्य निधि है.. जब मुगल सेना महाराणा के पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26 फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुगल फौज का कोई घुड़सवार पार न कर सका। हल्दी घाटी की मिट्टी को कान लगाकर सुनेंगे तो, चेतक के पदचाप आज भी सुनाई देते है…
” कुरुछेत्र की रणभूमि में जो पाञ्चजन्य गुंजित होता था। वैसी ही ध्वनि होती थी जब हल्दी घाटी में चेतक हिनहिनाता था.. निल वर्णीय अश्व की आहट कायरता के कलंक धो जाती थी, जय मेवाड़ कहते ही राणा के भाले में भवानी प्रकट हो जाती थी..!!
हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के पास सिर्फ 20,000 सैनिक थे और अकबर के पास 80,000 सैनिक. इसके बावजूद महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी और संघर्ष करते रहे..हल्दीघाटी के युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे…हिन्दू धर्म तथा देशहित के लिए महाराणा प्रताप जंगलों में रहे..माँ भारती के बेटे को,उनके परिवार को घास की रोटियां तक खानी पड़ी..।
लेकिन वे सभी चट्टान की भांति दुश्मन के सामने अडे रहे..हर बार जीते हुए इलाकों में मुगलिया चौकी बना दी जातीं और सेना के लौट जाने के बाद पहाड़ों में छिपे हुए प्रताप और उनकी सेना बाहर आकर उन्हें ध्वस्त कर देती। महाराणा ने बहुत कम समय में अपना खोया हुआ राज्य काफी हद तक पा लिया था.. यही समय था जब मेवाढ के लिए स्वर्णिम युग कहा गया। दुर्भाग्य से 19 जनवरी 1597 को नई राजधानी चामढ में महाराणा प्रताप माँ भारती के आँचल को छोड़कर यहाँ से विदा हो गये…
गिरा जहाँ पर रक्त वीर का, वहाँ का पत्थर पत्थर जिंदा है
देह की सीमाएँ है पर नाम का अक्षर अक्षर अब भी जिंदा है
जीवन में यह अमर कहानी अक्षर अक्षर गढ़ लेना..!!
शौर्य कभी सो जाये तो महाराणा प्रताप को पढ़ लेना..।
इन्हीं शब्दों के साथ..आज 482 वे जन्म महोत्सव निमित्त हे धन्य धरा के हिन्दू वीर… हे परम आदरणीय पूर्वज महाराणा प्रताप…आपके पुज्य चरणों में आखिरी सच परिवार का साष्टांग नमन, वंदन, प्रणाम…