दीपावली दीपो और देव देवियो को मानाने का पर्व है। आज हम दीपावली में गणेशजी और लक्ष्मीजी की पूजा करते है परन्तु दीपावली पर्व ३- ४ हजार वर्ष पुराना है। यह पहले यक्षों का पर्व था। दिवाली के दिनों में यक्ष जाति के लोग अपने सम्राट कुबेर के साथ मौज मनाते और अपनी पत्नियों के साथ आमोद- प्रमोद करते थे। दीपावली की रात्रि को ‘यक्ष रात्रि’ भी कहा जाता है। वाराह पुराण और वात्स्यायन के कामसूत्र से भी इसकी पुष्टि होती है।
हिमाचल प्रदेश की कुछ जातियों में अब भी यक्षपूजन की परंपरा है।
क्या लक्ष्मी जी और कुबेर की पूजा एक साथ होती आयी है। विभिन्न स्थानों पर की गई खुदाई में कुषाण काल की अनेक प्रतिमाएं मिली हैं, जिनमें यक्ष और लक्ष्मी को एक साथ दिखाया गया है। कुछ प्रतिमाओं में यक्ष अपनी पत्नी हरिति के साथ हैं। इससे ऐसा लगता है मानो पहले कुबेर के साथ उनकी पत्नी हरिति का ही पूजन किया जाता था। कुछ समय बाद हरिति का स्थान लक्ष्मी ने ले लिया और फिर यक्ष के स्थान पर श्रीगणेश को स्थापित कर दिया गया।
कुबेर का वाराणसी से सम्बन्ध
मत्स्य पुराण के अनुसार कुबेर अपनी इच्छा से वाराणसी में स्वर्णाभूषणों से युक्त सिंह पर आरूढ़ हो कर बैठे है। वाराणसी में भगवान विश्वनाथ के मंदिर के साथ ही मणिभट्ट यक्ष की भी पूजा होती है। इस प्रकार कुबेर और यक्ष जाति का भगवान शिव से भी गेहरा सम्बन्ध है।
कुबेर को ही गणेशजी का स्वरुप माना गया है। ग्रंथो की माने तो ऐसा बताया हुआ है की शिव के समक्ष कुबेर गणेश रूप में परिवर्तित हो गए।
क्या है ‘कुबेरेश्वर का सत्य
स्कन्दपुराण के अनुसार, कुबेर ने शिवोपासना के लिए न्यंकमती नदी के पूर्व तट पर शिवलिंग की स्थापना की, जो ‘कुबेरेश्वर’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी नदी के पश्चिमी तट पर कुबेर ने शिव की उपासना तथा स्तवन किया। कुबेर द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे अपना मित्र बनाकर दिक्पाल नियुक्त कर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने कुबेर को देवताओं का धनाध्यक्ष—कोषाधिपति भी बना दिया।
मान्यता है कि भगवान शिव अलकापुरी के पास कैलाश पर ही बस गए। स्कंदपुराण के अनुसार, कुबेर का लोक वरुणदेव की पुरी के पूर्वभाग में अलकापुरी के नाम से विख्यात है।
सात पीढ़ी तक अचल लक्समी के लिए करे ये उपाय
कुबेरनगर में स्थापित शिवलिंग का पंचमी तिथि को विधिवत् पूजन करने से घर में सात पीढ़ियों तक अचल लक्ष्मी का निवास होता है।
कुबेर ने कई वर्षों तक भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया। जब शिव और पार्वती प्रकट हुए तो कुबेर पार्वती के सौंदर्य और मातृभाव को देखकर सम्मोहित हो गए। कुबेर के इस बर्ताव को देख कर पार्वती जी को क्रोधित हो उठी और उन्होंने फलस्वरूप कुबेर की एक आंख की ज्योति समाप्त हो गई।
कुबेर ने जब अपने भावों की सत्यता बताई तो भगवान शिव नें उसे समस्त निधियों का स्वामी तथा गुह्यकों का स्वामी होने का वर दिया। पार्वती जी ने भी कुबेर को पुत्र रूप में स्वीकार करते हुए कहा कि एकाक्षी को देखने से होने वाला अप शकुन उनके एक-पिंगलाक्ष रूप को देखने से नष्ट हो जाएगा।
कुबेर को कुबेर नाम किसने दिया
माता पारवती ने कुबेर को उनकी सौंदर्य से ईर्ष्या करने के कारण उनको ‘कुबेर’ नाम दिया।
यक्षराज कुबेर की साधना
कुबेर देवजाति के है या उपदेव है ये अक्सर लोग जानना चाहते हैं। कुबेर यक्ष है। अथर्ववेद में वरुण और प्रजापति को यक्ष बताया गया है। लेकिन वैदिक साहित्य में यक्ष देवकोटि में आते हैं। देवता न होने पर भी इनके स्वभाव में क्रूरता जैसे आसुरी गुण नहीं थे, इसलिए इन्हें देव समाज में भी सम्मान प्राप्त था।
कुबेर का स्वरुप
इनके हाथ, पैर, नख, तालु, जिह्वा आदि का वर्ण रक्त है। ये मुकुट और आभूषण धारण करते हैं।इनके जीवन में मौज- मस्ती, आहलाद और प्रसन्नता का विशेष स्थान है।
कुबेर के माता पिता और परिवार
महर्षि विश्रवा की पत्नी देववर्णिनी से कुबेर का जन्म हुआ था। कुबेर रवां के भाई है। महर्षि विश्रवा और कैकसी से दशानन रावण का जन्म हुआ।
कुबेर और रावण के सम्बन्ध
कुबेर यक्षों के स्वामी थे। रावण राक्षसों के वर्चस्व और पुनर्स्थापना के लिए पहले अपने भाई कुबेर की नगरी लंका को अपने अधिकार में लिया और उनका पुष्पक विमान भी छीन लिया।
यक्षों की पूजा क्यों नहीं की गयी
राक्षसों से संबंध जुड़ने के बाद यक्षों को आर्थिक रूप से हानि तो हुई ही, उनकी सामाजिक प्रतिष्ठ भी आहत हुई। लोगों ने उनका पूजन-अर्चन छोड़ दिया।