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पाश्चात्य संस्कृति की दौड़ में ये कहां आ गये हम, आधूनिक भारत की स्त्रियां व भौड़ा समाज।

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आधुनिक स्त्रियां कुछ दिनों पहले मैं नोएडा की फिल्म सिटी से गुजर रहा था। दिन ढलने का समय था। एक चर्चित मीडिया और फिल्म इंस्टीट्यूट से छात्र( उभयलिंगी) बाहर निकल रहे थे। उनमें से किसी के शरीर पर भारतीय कपड़े नहीं थे। (सलवार कुर्ता ही सही, साड़ी तो कल्पना से परे ही है) झुंड में कुछ लड़कियां जो बीस इक्कीस वर्ष की रही होंगी–बेडौल थीं। लेकिन उन्होंने विचित्र कपड़े पहन रखे थे। उनके पेट पूरी तरह से अनावृत थे। छाती बहुत हद तक खुली थी। कमर से नीचे उन्होंने महाचुस्त कपड़े पहन रखे थे। अगर वह सुन्दर अथवा आधुनिक अर्थों में सेक्सी दिखने की कसरत थी तो भी व्यर्थ थी।

मुझे यह कहते हुए अत्यंत ग्लानि होती है कि वे विशुद्ध मूर्खात्माएं ही प्रतीत होती थीं। जिन्हें न तो कोई ड्रेसिंग सेंस था। ना ही विवेक। उन्हें संभवतः कोई यह बताने वाला नहीं था कि तुम भद्दी और विद्रूप दीख रही हो! पाश्चात्य शैली का अंधानुकरण से कुछ नहीं सधता।

वहां का ड्रेस कोड यही है। एक ऐसा कोड जिसका कोई कोड नहीं। फैशन परेड करती हुईं शिक्षार्थिनियां किसी शिक्षण संस्थान की गरिमा पर विचार नहीं करतीं। न ही उनके शिक्षक इस बारे में सोचते अथवा समझते य समझाते हैं। दोनों ही आनंदित होते हैं। सहपाठियों के जीवन में तो बसंत ही बसंत रहता है। क्या कारण है कि लगभग संपूर्ण उत्तर भारतीय बड़े शहरों में पापा की परियां दिनों दिन ऐसे कपड़ों की ओर झुक रही हैं।

पिछले दिनों हम सबने कई वीडियो देखे, जिनमें महिलाएं गार्ड को पीट रहीं। गाली गलौज की तो कोई बात ही नहीं। इस शहर में कार चलाने वाली कितनी ही महिलाएं आए दिन बदतमीजी करती हुई देखी जा सकती हैं। खुद गलत होकर भी सामने वाले को अंग्रेजी में गाली देती हैं। वह अधिक प्रतिकार कर पाने की स्थिति में नहीं होता। मैं स्वयं दो तीन बार भोग चुका हूं।

दो तीन माह पहले किसी दक्षिण भारतीय मंदिर में एक वैवाहिक कार्यक्रम में जाना हुआ था। उत्तर-दक्षिण का मेल था। उत्तर भारत की लड़की थी। वधू की कुछ साथिनें और बहिनें साड़ी पहन कर आयी थीं। किन्तु वे साड़ियां सूरज हुआ मद्धम और टिप टिप बरसा पानी स्टाइल में बांधी गयी थीं। उन्हें इस बात का भी ध्यान न रहा कि वैवाहिक कार्यक्रम मंदिर में था। बात नाभि और पृष्ठ दर्शना साड़ियों तक न रही। कुछ देर बाद वे फोटो सेशन में शामिल हुईं और गर्भगृह के बाहर प्रदक्षिणा पथ पर अपनी पीठ आदि के विशेष कोण से फोटो उतरवाने लगीं। मैं उनकी मूर्खता पर हतप्रभ था।

कई मर्तबा ऐसा हुआ है कि मयूर विहार के सिद्धि विनायक मंदिर में यहां की स्थानीय महिलाएं लड़कियां जिम वाले कपड़े पहन कर पहुंच जाती हैं। चुस्तमचुस्त। उन्हें मंदिर में प्रवेश करने से रोका जाता है।‌ वे भिनभिनाती हैं। मंदिर प्रशासन को कोसती हैं। लेकिन आत्मावलोकन नहीं करतीं।

अनुपमा सीरियल में जो दिखलाया जा रहा वह धीरे- धीरे भारतीय समाज का सच हो रहा। सम्बन्धों का अंत हो रहा। उस अंत में एक नए प्रारम्भ का उत्सव मनाया जा रहा है। कौन जानता है कि वह नया प्रारम्भ उपसंहार सिद्ध नहीं होगा। स्वयं संततियां अपने माता पिता के विच्छेद करवा रहीं। स्वयं माता पिता अपनी पुत्रियों के जीवन में अत्यधिक ताक झांक कर उन्हें नष्ट कर रहे। पापा की परियां वैवाहिक जीवन प्रारंभ करने के बाद अपने नैहर से उस करुणामय विलगाव को अब स्वीकार नहीं कर पातीं। नैहर और ससुराल साथ-साथ हैं। तटस्थ होकर विवाह आश्रम को स्वीकार करने का भाव समाप्त होता जा रहा। तुम्हारे मम्मी पापा हैं तो मेरे मम्मी पापा भी हैं! लेकिन वे भूल रहीं कि उनकी माताओं के मम्मी पापा भी थे। और उनकी माताएं उनसे बहुत प्रेम करती हुईं अपने जीवन में अधिक खुश रहती थीं। उन्होंने संबंधों की गरिमा का निर्वाह बेहतर किया।

मोहाली की घटना एक डरावना संकेत है। यौन उन्मुक्ति के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो रही यह पीढ़ी कहां जा रही। कोई लड़की अपनी साथिनों के नहाने के वीडियो सार्वजनिक कर रही! यह कैसा पागलपन है। कैसी डरावनी स्वच्छंदता! काम के प्रति भारतीय समाज का दृष्टिकोण खुला रहा है। स्वस्थ। जहां भव्य मंदिरों में मैथून मुद्रा की मूर्तियां उत्कीर्ण की गईं वहां का समाज सेक्स के प्रति वहशी नहीं हो सकता था। कभी न हुआ।लेकिन पश्चिम की पशुवत नकल उन्हें नष्ट कर रही।

यौनाचरण मनुष्यता का एक बड़ा पैमाना है। वहां सबसे अधिक नियंत्रण की आवश्यकता होती है।जब यौनाचरण सारे कायदे कानून तोड़ने को बढ़ता है तब मनुष्य धीरे धीरे पशु होने लगता है। उसके लिए अन्य पारिवारिक और सामाजिक संस्थाएं अर्थहीन होने लगती हैं।

ऐसा नहीं कि इन बीते वर्षों में पुरुषों ने आचरण का कोई आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया हो। बल्कि मेरा तो यही मत है कि उन्होंने स्त्री समानता के जिस अनियंत्रित और अस्वस्थ पैमाने को गढ़ा, उसके कारण ही स्थिति बेकाबू होने लगी है। पापा की परियां अगर अपने पापाओं से भारतीयता, स्त्रीधर्म की महत्ता, जीवन को बांधे रखने में उनकी विराट भूमिका को समझ पातीं तो उनमें यह भौंडापन न आता। पुरुषों ने समानता के नाम पर एक मूर्खतापूर्ण प्रवृत्ति को जन्म दिया। इसे एक साधारण बात से समझा जा सकता है कि आज भी बहुत सारी लड़कियां सफल होकर भारतीय जीवन बोध से भरी हुई हैं। यह जीवन बोध उन्हें अपने माता पिता से ही मिला है। उन्होंने अपनी पुत्रियों से यह नहीं कहा कि जाओ! मेरी परियो, तुम बेलगाम उड़ो!


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