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इतिहास के झरोखों से, नेताजी सुभाषचंद्र बोस की बात पहला प्रधानमंत्री जिन्ना न माननें व नेहरू की सत्तालोलुपता का दंश ‘‘विभाजन विभीषिका दिवस’’ को भुलाने का षड़यंत्र।

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नई दिल्‍ली। नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मोहम्‍मद अली जिन्‍ना के मंसूबों का पता चल गया था। वह जान गए थे कि आजादी की भारत बड़ी कीमत चुकाने वाला है। उन्‍होंने इस विभाजन को टालने की कोशिशें अपने जीते जी शुरू कर दी थीं। यहां तक नेताजी ने जिन्‍ना को आजाद भारत का पहला प्रधानमंत्री बनने की पेशकश तक कर दी थी। सिर्फ नेताजी ही नहीं, महात्‍मा गांधी और सीनियर कांग्रेस नेता सी राजगोपालाचारी ने भी जिन्‍ना को यह ऑफर दिया था। हालांकि, इन तीनों ने जिन्‍ना के सामने एक ही शर्त रखी थी। यह थी- वह देश के विभाजन की अपनी मांग को छोड़ दें। यह और बात है कि जिन्‍ना के सिर पर मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्‍तान का भूत सवार था। उन्‍होंने किसी की बात नहीं मानी।

नेताजी आजादी तक जिंदा होते तो पिक्‍चर शायद कुछ और ही होती। नेताजी की आजाद हिंद फौज सड़कों पर जिन्‍ना और मुस्लिम लीग के गुंडों को मुंह तोड़ जवाब देने की ताकत रखती थी। मुस्‍ल‍िमों में भी बोस की लोकप्रियता बहुत ज्‍यादा थी। आजाद हिंद फौज में मुस्लिमों की संख्‍या ठीक ठाक थी। नेताजी के साथी शाहनवाज खान उनके बाएं हाथ जैसे थे। लेकिन, नेताजी की कोशिश थी कि चीजों को शांति से हल किया जाए। वह अंग्रेजों में किसी तरह अंदरूनी कलह का मैसेज नहीं जाने देना चाहते थे। 1945 में सुभाष बाबू की रहस्‍यमय मौत के बाद चीजें तेजी से बदल गईं। जिन्‍ना अपने मंसूबों को पूरा करने में सफल हो गए।

1940 में ज‍िन्‍ना ने खूब जहर उगला था

23 मार्च 1940 की बात है। जिन्‍ना की विभाजनकारी सोच अब खुलकर सामने आ चुकी थी। उन्‍होंने पाकिस्‍तान के गठन के लिए प्रस्‍ताव पारित किया। लाहौर में बादशाही मस्जिद के नजदीक मिंटो पार्क में जिन्‍ना ने एक विशाल रैली को संबोधित किया। इसमें जिन्‍ना ने 2 घंटे का लंबा- चौड़ा भाषण दिया। इसमें हिंदुओं के खिलाफ जमकर जहर उगला। मुस्लिम लीग के प्रमुख ने तब यह भी कहा था कि हिंदू और मुसलमान हर नजरिये से अलग हैं। उनके इतिहास, दृष्टिकोण और परंपराओं में कोई समानता नहीं है। दोनों के हीरो भी अलग हैं। ऐसे में इनका एक- साथ रह पाना नामुमकिन है।

जिन्‍ना ने अपनी स्‍पीच में लाला लाजपत राय और दीनबंधु चितरंजन को भी काफी बुरा- भला कहा था। 1920 से ही जिन्‍ना को कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिल रही थी। कांग्रेस की जड़ें पूरी देश में फैल चुकी थीं। वहीं, ऑल- इंडिया मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए भारत के उत्‍तर- पश्चिमी और उत्‍तर- पूर्वी क्षेत्रों में अलग देश की मांग उठानी शुरू कर दी थी। शुरू में तो इसे बहुत समर्थन नहीं मिला। लेकिन, 1940 तक आते-आते इसके पक्ष में काफी तादाद में लोग आ गए थे।

सुभाष कांग्रेस प्रेस‍िडेंट थे, ज‍िन्‍ना को की थी यह पेशकश

फारूक अहमद डार अपनी किताब ‘Jinnah’s Pakistan: Formation and Challenges of a State’ लिखते हैं कि 1940 के प्रस्‍ताव के बाद कांग्रेस ने जिन्‍ना को समझाने की कोशिशें तेज कर दी थीं। इस दिशा में सबसे पहले कदम उठाया था सुभाष चंद्र बोस ने। उन दिनों सुभाष बाबू कांग्रेस प्रेसिडेंट थे। बोस ने आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री का पद जिन्‍ना को ऑफर किया था। लेकिन, साथ में शर्त यह रखी थी कि उन्‍हें भारत के विभाजन की अपनी मांग को छोड़ना होगा।


आखिरी सच के वैश्विक स्तर पर बढ़ता पाठकों का दायरा
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कुछ भी नहीं था ज‍िन्‍ना को मंजूर

कुछ महीने बाद सी राजगोपालाचारी ने एक कदम और बढ़ाया। उन्होंने मुस्लिम लीग को न सिर्फ प्रधानमंत्री नॉमिनेट करने के अधिकार की पेशकश की, बल्कि अपनी पसंद का कैबिनेट लेने को भी कहा। अप्रैल 1947 में गांधी इस तक पर तैयार थे कि जिन्‍ना पूरे मुस्लिम प्रशासन के साथ केंद्र में अपने हाथ में सत्‍ता ले लें, लेकिन पार्टिशन की मांग को त्‍याग दें। हालांकि, जिन्‍ना टस से मस नहीं हुए।

नेताजी ने सिंगापुर में आजाद हिंद फौज बनाई थी। देश छोड़ने के बाद वह जिन्‍ना और मुस्लिम लीग की गतिविधियों पर शायद इतनी नजर नहीं रख सके। मई 1947 में मुस्लिम लीग के गुंडों ने रावलपिंडी में हिंदुओं और सिखों पर तीखा हमला किया। महिलाओं को बेआबरू किया और खुलेआम संपत्तियां लूट लीं। रावलपिंडी में हिंदू और सिख बेहद धनी थे। उनकी प्रॉपर्टी मुख्‍य रूप से निशाना बनाई गईं। ये दंगे धीरे- धीरे पूर्वी बंगाल पहुंच गए। वहां भी हजारों हिंदुओं का कत्‍लेआम हुआ। जिन्‍ना ने न तो इन्‍हें रोकने की कोशिश की न ही वह किसी दंगा प्रभावित इलाके में गया।

हिंदुओं के साथ हुआ अमानवीय अत्याचार

मुस्लिम लीग द्वारा दीन के नाम पर भीड़ का आयोजन किया गया था, मुस्लिम पुलिसकर्मी, प्रशासन और सैन्यकर्मियों ने हिंदुओं और सिखों के नरसंहार में मदद की। कामोके हत्याकांड में 5000 लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेजे जाने का हवाला देकर ले जाया गया, पराचिनार हत्याकांड में 1,000, गुजरात हत्याकांड में 2,500 से 3,000 और इनमें से सबसे वीभत्स शेखूपुरा का हत्याकांड, इसमें 15,000 लोगों को हत्या की गई थी, लड़कियों के साथ दुष्कर्म किया गया और उनके अपहरण हुए। शराकपुर हत्याकांड, गुजरांवाला हत्याकांड, मुजफ्फराबाद हत्याकांड और मीरपुर-कोटली हत्याकांड जैसी अन्य घटनाएं भी इनमें शामिल हैं।

कितने हिंदुओं की हत्या की गई, इसकी संख्या आज भी किसी को नहीं पता है। परंतु सबसे वीभत्स शेखूपुरा हत्याकांड था। इसकी याद भर से रूह कांप जाती है। यहां उसका संक्षिप्त विवरण है। शेखूपुरा के इतिहास में कभी भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ था। इसे गैर- मुसलमानों का मजबूत गढ़ माना जाता था। इस शहर में हिंदुओं और सिखों की ठीक ठाक आबादी थी। यह अलग बात है कि इस जिले में 68 प्रतिशत मुसलमान थे, 12 प्रतिशत हिंदू और 20 प्रतिशत सिख थे, लेकिन इस जिले में सिख समुदाय सबसे महत्वपूर्ण और मजबूत स्थिति में था। वे इस जिले को अपना मजबूत गढ़ मानते थे। सिखों के सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल ननकाना साहिब और सच्चा सौदा भी इसी जिले में थे।

माउंटबेटन योजना की भारत के विभाजन की घोषणा के बाद भी हिंदुओं और सिखों ने इस जिले को नहीं छोड़ा। गुजरांवाला के पड़ोस के जिलों में रहने वाले गैर- मुसलमानों को लगता था कि उनके लिए यहां जाना ही सुरक्षित रहेगा। इस तहसील और शहर को हिंदुओं और सिखों के लिए सुरक्षित माना जाता था।

पहली बार शेखूपुरा में लगा था कर्फ्यू

15 अगस्त से पहले और बाद में मुसलमानों ने दृढ़ता से घोषणा की थी कि गैर- मुसलमानों के जीवन, सम्मान और संपत्तियों की रक्षा की जाएगी। पंजाब का विभाजन और इसके लिए अधिकारियों ने जो कदम उठाए, उनमें गैर-मुसलमान अधिकारियों को हटाए जाने को प्रमुख विकल्प के रूप में अपनाया गया। सभी मजिस्ट्रेट, निगमों के अधिकारी और पुलिस सब मुसलमान थे। यहां तक कि सीमा पर भी पूरी तरह मुसलमानों को तैनात कर दिया गया था। शेखूपुरा के इतिहास में 24 अगस्त 1947 को पहली बार मजिस्ट्रेट द्वारा कर्फ्यू लगाया गया था।

रात के अंधेरे में एक घर को आग लगा दी गई थी और मुसलमान सैनिकों ने नजर रखी कि कौन-कौन आग बुझाने आता है ताकि उसे गोली मारी जा सके। उस रात दो लोगों को मार भी दिया गया। 26 अगस्त को दो बजे फिर कर्फ्यू लगा दिया गया। सभी पेट्रोल पंप मालिकों को प्रशासन ने सम्मन किया और आपातकाल का हवाला देकर उनसे सारा पेट्रोल ले लिया। हिंदू और सिख दुकानदारों के समीपवर्ती स्थित दुकानों के मुसलमान मालिकों से अपने दुकान खाली करने को कहा गया था।

अपनी बेटियों का कत्ल करने को मजबूर हुए लोग

कर्फ्यू लागू होने के बाद मुसलमान मजिस्ट्रेट काजी अहमद शफी ने सेना का नेतृत्व किया और शेखपुरा के अंतिम छोर के अकालगढ़ से शुरु कर पूरे शहर में मार्च निकाला। उनका काम बहुत व्यवस्थित था और उसे सैन्य सहयोग से लागू किया गया। उन्होंने व्यवस्थित तरीके से सभी पुरुषों और उम्रदराज महिलाओं की हत्या कर दी और लड़कियों का अपहरण कर लिया। एक दूसरी पार्टी ने संपत्तियों को लूटना शुरू कर दिया और गैर- मुसलमानों के घरों में आग लगाना शुरू कर दिया। अपना आत्मसम्मान बचाने के लिए कुछ हिंदू और सिख परिवारों ने अपनी बेटियों को मार डाला और उनके शवों को कुएं में डाल दिया।



विरोध करने पर सभी पुरुषों को मार दी गई गोली

एक अन्य घटना में हिंदुओं और सिखों एक जगह इकट्ठा होने के लिए कहा गया और एक लाइन में महिलाएं और दूसरी में पुरुषों को खड़ा कर दिया गया। उनके परिजनों, भाइयों और पतियों के सामने युवतियों का चयन शुरू कर दिया गया था। उनमें से जिसने भी प्रतिरोध किया तो वहां खड़े सभी पुरुषों को गोली मार दी गई। यह 26 अगस्त के अंत तक चलता रहा। दो दिनों में 10,000 पुरुषों की हत्या कर दी गई थी। ट्रकों में लड़िकयों को भरकर ले जाया गया।

करीब 15,000 आबादी में से केवल 1500 को ही बचाया जा सका। उन्हें शरणार्थी कैंप में भेज दिया गया। देश की सबसे समृद्ध आबादी को उनके हाल पर छोड़ दिया गया। यह समृद्धि पूर्वी पंजाब में स्थित शैक्षणिक संस्थानों, बैंकों के मुख्यालयों, बीमा कंपनियों और वहां से निकलने वाले अखबारों और पत्रिकाओं की मौजूदगी से भी नजर आती थी।

आजाद तो हुए लेकिन सबकुछ लुट चुका था

जब 15 अगस्त को देश आजाद हुआ, इन चेहरों में आजादी की चमक निश्चित रूप से नदारद थी। बतौर शरणार्थी, हमने अपना सब कुछ खो दिया, अपना घर और चूल्हा, अपने नाते- रिश्तेदार, अपनी चल और अचल संपत्तियां, अपने धार्मिक स्थल और स्थान। हम लोगों का जीवन व जीवन जीने आदि के तरीके हमारे शहीदों के खून से लथपथ है। हमारे लिए आज एकमात्र सांत्वना यही है कि आजादी के 75 वर्षों के बाद देश हिंदुओं और सिखों के नरसंहार और सर्वनाश को ‘‘विभाजन विभीषिका दिवस’’ के रूप में याद करने की कोशिश कर रहा है।

इस सब की बुनियाद 1928 के नेहरु रिपोर्ट में जिन्ना द्वारा प्रस्तुत संशोधन प्रस्ताव के कारण बनें थे जो निम्नवत् हैं।

दिसम्बर 1928 में नेहरू रिपोर्ट की समीक्षा के लिये एक सर्वदलीय सम्मेलन का आयोजन कलकत्ता में किया गया। इस  सम्मेलन में मुस्लिम लीग की ओर से मुहम्मद अली जिन्ना ने रिपोर्ट के संबंध में तीन संशोधन प्रस्ताव प्रस्तुत किये-

केंद्रीय विधान मंडल में एक-तिहाई स्थान मुसलमानों के लिये आरक्षित किये जायें।

वयस्क मताधिकार की व्यवस्था होने तक पंजाब एवं बंगाल के विधानमंडलों में जनसंख्या के अनुपात में मुसलमानों के लिये सीटें आरक्षित की जायें।

प्रांतों के लिये अवशिष्ट शक्तियों की व्यवस्था की जाये।

मतदान होने पर सम्मेलन में जिन्ना के ये प्रस्ताव ठुकरा दिये गय। परिणामस्वरूप मुस्लिम लीग सर्वदलीय सम्मेलन में अलग हो गई तथा जिन्ना, मुहम्मद शफी एवं आगा खां के धड़े से मिल गये। इसके पश्चात मार्च 1929 में जिन्ना ने अलग से चौदह सूत्रीय मांगें पेश कीं, जिसमें मूलतः नेहरु रिपोर्ट के बारे में उन्होंने अपनी आपत्तियां दुहरायीं।

जिन्ना की चौहद सूत्रीय मांगे-

संविधान का भावी स्वरूप संघीय हो तथा प्रांतों की अवशिष्ट शक्तियां प्रदान की जायें।

देश के सभी विधानमण्डलों तथा सभी प्रांतों की अन्य निर्वाचित संस्थाओं में अल्पसंख्यकों को पर्याप्त एवं प्रभावी नियंत्रण दिया जाये।

सभी प्रांतों को समान स्वायत्तता प्रदान की जाये।

साम्प्रदायिक समूहों का निर्वाचन, पृथक निर्वाचन पद्धति से किया जाये।

केंद्रीय विधानमंडल में मुसलमानों के लिये एक-तिहाई स्थान आरक्षित किये जाय।

सभी सम्प्रदायों को धर्म, पूजा, उपासना, विश्वास, प्रचार एवं शिक्षा की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की जाये।

भविष्य में किसी प्रदेश के गठन या विभाजन में बंगाल, पंजाब एवं उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत की अक्षुणता का पूर्ण ध्यान रखा जाये।

सिन्ध को बम्बई से पृथक कर नया प्रांत बनाया जाये।

किसी निर्वाचित निकाय या विधानमंडल में किसी सम्प्रदाय से संबंधित कोई विधेयक तभी पारित किया जाए, जब उस संप्रदाय के तिन-चौथाई सदस्य उसका समर्थन करें।

सभी सरकारी सेवाओं में योग्यता के आधार पर मुसलमानों को पर्याप्त अवसर दिया जाये।

अन्य प्रांतों की तरह बलूचिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत में भी सुधार कार्यक्रम प्रारंभ किये जायें।

सभी प्रांतीय विधानमण्डलों में एक-तिहाई स्थान मुसलमानों के लिये आरक्षित किये जायें।

संविधान में मुस्लिम धर्म, संस्कृति, भाषा, वैयक्तिक विधि तथा मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं के संरक्षण एवं अनुदान के लिए आवश्यक प्रावधान किए जाएं।

केंद्रीय विधानमण्डल द्वारा भारतीय संघ के सभी राज्यों के सहमति के बिना कोई संवैधानिक संशोधन न किया जाये।

नेहरू रिपोर्ट की संस्तुतियों से न केवल हिन्दू मह्रासभा, लीग एवं सिख समुदाय के लोग अप्रसन्न थे बल्कि जवाहरलाल नेहरू एवं सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व वाला कांग्रेस का युवा वर्ग भी इससे खिन्न था। कांग्रेस के युवा वर्ग का मानना था कि रिपोर्ट में डोमिनियम स्टेट्स की मांग स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में एक नकारात्मक कदम है। इसीलिये सर्वदलीय सम्मेलन में इन्होंने रिपोर्ट के इस प्रावधान पर तीव्र आपत्ति जताई। जवाहरलाल नेहरू एवं सुभाष चंद बोस ने कांग्रेस के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया तथा संयुक्त रूप से ‘भारतीय स्वतंत्रता लीग का गठन कर लिया।

साभार मीडिया रिपोर्ट्स


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